Wednesday, October 1, 2014

हाँग काँग


उन जानी पहचानी सड़कों की तस्वीरों में

एक अनजान सी भीड़ दिखाई देती है
  
कुछ जाने पहचाने से चेहरे तलाशने की कोशिश करता हूँ

और मिलते हैं तो महज़ उन अजनबी आँखों से बरसते हुये कुछ आँसू

एक छतरी भेज रहा हूँ

उस जमीन को छतरी से ढ़ाँप देना

इन आँसुओं के दाग उस पर अच्छे नहीं लगेंगे.

  

Thursday, September 25, 2014

मंगल में मंगल



अमावस में चाँद ढ़ूँढ‌ते ढ़ूँढ‌ते

एक अजनबी सा मिला आकाश में

कुछ अजीब से लिबास में

गुनगुनाते अहसास में

अपनी ज़मीन के बहुत ही पास में



“कौन हो तुम?

पहले कभी दिखे नहीं असमान में”



बोला वो बड़ी शान से

“वही तो हूँ

सदियों से तो देखते रहो हो मुझे लाल पोशाक में

बस फितरत आज कुछ बदली है

हरकत आज कुछ बदली है

बावला हो कर घूमता हूँ आज


तिरंगे की छाँव में”

Tuesday, September 16, 2014

सलवटें

पिछली बार जब हम मिले थे

और तुम जब आँखें बंद करके

खुश्बुओं को गुनगुना रही थी

तब तुमसे छुपते छुपाते चोरी से

उस वक्त के दो चार लमहे चुरा कर ले आया था

आज बड़े सलीके से साँसों में परत दर परत कुछ सलवटें बिछाई हैं

उन लमहों को सम्भाल सम्भाल कर उन परतों में छुपा दिया है

किसी दिन जब बेजान ज़हन फिर से सांसें गुड़गुड़ाएगा

तो हवाओं की परतों के साथ छुपे लमहे

फिर से अंगड़ाईयाँ लेते हुये दौड़ेंगे मेरी नसों में.   


तब तक चलो सांसों में सलवटें बिछाता रहता हूँ.    

Wednesday, September 10, 2014

नज़्म

तुम्हारे खयालों को उंडेल कर अपनी साँसों में

बिन लफ्ज़ों की एक नज़्म बुनी थी मैं ने एक बार

पलकों के तले एक मुंडेर बना कर बड़ी नज़ाकत से उसे रोपा था

आँखों की नमी से कभी सींचा

तो कभी ज़हन तक उसकी जड़ों को खींचा

लगता है अब वो पनपने लगी है

हरी हरी सी लगती है सारी कायनात अब

आँखों में चुभन का एक टुकड़ा सुस्ताता रहता है 

एक कतरा ख़ून का भी लुढ़क गया था कल आँखों से

शायद काँटे उगने लगे हैं उस नज़्म पर अब

लेकिन जल्द ही तुम्हारी नेल पॉलिश का रंग चुरा कर लाल फूल भी निकलेगा


और कर देगा मेरी आँखों को सुर्ख लाल.

Sunday, September 7, 2014

काली

स्याही तो ना जाने कबकी सूख चुकी थी उन भीड़ भरे पन्नों में

लेकिन पन्नों पर बिखरे अल्फाज़ ना जाने क्यों

तुम्हारी नमी में भीगे हुये रेंगते ही रहे

धूप दिखाई और आँच दी उनको कि शायद अब सूख जायें

कमज़ोर पन्ने और लंगड़े अल्फाज़ उस आँच में भस्म हो कर राख हो गये

पर नमी तुम्हारी चुपके से भाप बन कर गुमशुदा हो गयी वहाँ से

छुपते छुपाते मुझसे ही बचते बचाते मेरे जिस्म के सारे रोंयों पर सेंध लगा कर

मेरी नसों की सुरंगों में घुटनों के बल रेंगती हुयी

ना जाने कब और कैसे मेरी आँखों के किसी कोने में रक्तबीज बन कर छुप गयी.

हर रात अनगिनत रक्तबीज लुढ़कते रहते हैं बंद पलकों से

सारा तकिया गीला मिलता है सुबह

अब तुम ही काली बन कर आओ



शायद तकिया सूखा मिले कल सुबह. 

Saturday, September 6, 2014

ना जाने कब

एक खुरदुरन सी पसीजती रहती है

स्याह रातें सासों में घुलती रहती हैं

बुझी हुयी माचिस की तीलियों से उठते हुये जाने पहचाने धुयें

अजनबी सी परछाईयाँ कैनवस पर लीपते रहते हैं

उन परछाईयों में एक इंद्रधनुष बोया है

हथेलियों की नमी से सींचता हूँ हर रोज़

ना जाने कब फूल फूटेंगे

और ना जाने कब उनकी खुश्बू का कम्बल

तुम लपेट कर रख जाओगी


मेरे बिस्तर के पैताने.